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सफर - मौत से मौत तक….(ep-3)

नंदू और यमराज दोनो छोटे नंदू के पीछे रिक्शे में बैठ गए , क्योकि सुबह जल्दी उठकर नंदू स्टेशन की तरफ़ निकल पड़ा था। नंदू  रास्ते में चल रहे हर मुसाफिर को एक उम्मीद भरी नजर से देख रहा था। शायद वो नंदू को रोके और स्टेशन तक ले जाने को कहे, कही कही पर तो नंदू खुद ही रुक जाता था और कहता था

"आओ बाबूजी, स्टेशन तक छोड़ देता हूँ"

मुसाफिर मना कर देते थे उसके बहुत सारे कारण होते थे
जैसे- मुसाफिर के पास पर्याप्त पैसे नही है, मुसाफिर ने स्टेशन जाना ही नही है। , या फिर मुसाफिर को पैदल जाना ज्यादा पसंद है, तो कभी कभी मुसाफिर ये भी सोच लेते थे कि रिक्शे वाले का कोई भरोसा नही, कही लूटपाट ना कर दे।

रिक्शे को तूफान की तरह भगाते हुए, नंदू स्टेशन पहुँचा ही था कि अचानक दो तीन लोग रिक्शा ढूंढते नजर आए। नंदू ने जल्दी से सरपट दौड़ाते हुए रिक्शे को उनके बगल पर पहुंचा दिया। इससे पहले की कोई और रिक्शा वाला वहाँ आ टपकता,

"कहाँ जाना है आप लोगो ने?" नंदू ने सवाल किया।

तीन आदमी थे, जिसमें से दो तो आदमी थे, एक लड़का ही था।

"शायद ये लोग बैठेंगे….हमे उतरना चाहिए" यमराज ने नंदू अंकल से कहा।

दोनो नीचे उतर गए।

तीन आदमियों में से एक ने नंदू से कहा- "जाना तो हमे मंगलम तक है, लेकिन क्या तुम हम तीनों को ले जा पाओगे…."

"अरे ले चलूंगा बाबूजी….आप टेंशन मत लो….बस बैठ जाओ……"छोटे नंदू ने कहा।

"अरे बेटा! रास्ता तो पता है ना….हमने जल्दी पहुँचना है, ये नही की भटकते राह जाएं हम लोग" आदमी ने कहा।

"अरे नही बाबूजी! मेरा रोज का रास्ता है…. और वैसे भी मेरा घर भी मंगलम के  पास ही है, मंडावली के पास…." छोटा नंदू बोला।

"फिर ठीक है…कितने में ले जाओगे."  आदमी ने कहा।

"बाबूजी सुबह का समय है, बॉनी का टाइम है, जितना आप सभी को देते हो उतना ही मुझे भी दे देना" छोटा नंदू बोला।

"अरे भाईसाहब हम बहुत साल बाद आ रहे है, तब तो छह रुपये में चले गए थे हम….अब आज के जमाने के हिसाब से दस रुपए तक तो हो ही गया होगा" आदमी बोला।

"नही बाबूजी! दस का जमाना भी नही रहा….बहुत दूर है यहां से पंद्रह रुपये लगेगा।" नंदू ने कहा।

"नही! दस ठीक है, पंद्रह कुछ ज्यादा नही है"  आदमी बोला।

"किसी और रिक्शे वाले से पूछोगे तो पच्चीस रुपया लेगा…. वो तो मैं कम लेता हूँ, जब मेरा बाकियों से कम है तभी तो मुझे सवारी मिलती है" नंदू ने कहा।

"रहने दो! दस लेने है तो चलो। नही तो कोई बात नही….हम दूसरा देख लेंगे, बहुत रिक्शे मिलेंगे अभी" आदमी ने कहा।

"देखो बाबूजी, मेरी आदत नही है बीस रुपये बताकर अठारह, फिर भी आनाकानी करे तो पंद्रह में ले जाने की….मैं सीधे पंद्रह रुपया बोल रहा हूँ,इससे कम में मुझे नही  कोई फायदा होगा, पूरा आधा दिन लग जाता है यहां से मंगलम तक एक चक्कर लगाने में, फिर कोई सवारी भी नही मिलती….मिलती भी है तो शाम तक दो चार रूपये वाली मिलती है" नंदू बोला।

"चलो बारह रुपये देंगे….ना तुम्हारी ना हमारी…" कहते हुए आदमी ने अपना बैग रिक्शे में रख दिया।

"अगर सुबह का समय नही होता तो हम मना कर देते" नंदू ने कहा।
तीनो रिक्शे में बैठे और नंदू ने पहले रिक्शे को हाथ से थोड़ी दूर तक धक्का दिया और फिर एक छलांग के साथ चलती रिक्शे में बैठ गया।

यमराज और नंदू अंकल भी रिक्शे में एडजस्ट हो गए, खैर उनका होना ना होना एक समान था, ना उनका भार होना था,ना उनको ज्यादा जगह की जरूरत थी।

नंदू रिक्शे को चलाने में मग्शुल हो गया, और इसी सोच में था कि
"....बारह रुपये ये हो जाएंगे, शाम तक पांच छह रुपये भी और कमा लूँगा तो कल के दिन का औसत निकल जायेगा….आज तो सुबह सुबह मजा ही आ गया"

यमराज ने  नंदू अंकल से कहा- "बड़े अजीब लोग है… तीन रुपये बचाकर क्या कर लेंगे"

"तीन रुपये की किम्मत तुम क्या जानो यमराज बाबू….तीन रुपये में एक गरीब के तीन वक्त की रोटी चल सकती है।"  नंदू अंकल ने कहा।

यमराज ने नंदू अंकल की बात सुनी और छोटे नंदू की तरफ देखा, जो पसीने से तर हो चुका था, उसकी मांस पेशियों में कसाव से साफ जाहिर हो रहा था कि बहुत ताकत लग रही थी। लेकिन उसकी मेहनत करने का जज्बा, और लैस कमाने की लालसा थी। वो कोई बड़ा आदमी बनने के लिए मेहनत नही कर रहा था, बस अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए कर रहा था।

रिक्शे में बैठे तीन लोग अभी तक शांत थे, सफर थोड़ा दूर का था , कम से कम एक घंटा तो लगना तय था, और उस तरफ बस भी नही जाती थी, इसलिए उन्हें रिक्शे में जाना पड़ रहा था।

रिक्शे में लड़का बिनोद और उसके पापा गोविंदलाल और उसके चाचा त्रिलोक बैठे थे।
बिनोद बिल्कुल शांत स्वभाव का लड़का था। जबकि उसके पापा गोविंद लाल बहुत बातूनी टाइप के थे।

"बहुत मेहनती लड़के हो तुम! शाबाश! " गोविंदलाल ने छोटे नंदू से कहा।

"क्या करे बाबूजी! मेहनत अपने लिए थोड़ी कर रहा हूँ, इस पापी पेट के लिए कर रहा हूँ…." नंदू ने कहा।

"क्यो पापी बोल रहे हो उस बेचारे पेट को….एक छोटा सा तो पेट है तुम्हारा….बल्कि तुम स्वयं छोटे हो अभी" गोविंद ने दोबारा कहा।

"मेरा अकेले का पेट नही बाबूजी! पूरे घर की जिम्मेदारी है….पांच लोग है खाने वाले….ऊपर से बहनों की शादी का टेंशन लेकर बाबूजी भी कुछ ना कुछ करते रहते है, लेकिन पापी पेट भरता नही, कितना ठूंस लो" नंदू ने गोविंद को जवाब दिया।

"अच्छा कितने भाई बहन हो तुम" गोविंद ने सवाल किया।

नंदू रिक्शा भी चला रहा था, इसलिए उसकी सांस भी फूल रही थी , वह हाफते हुए बोला - "दो बहन है, एक मेरे से बड़ी है और एक छोटी… और लड़का मैं एक ही हूँ"

नंदू को भी बात करते करते जाना पसंद था, कुछ अमीर लोग उसकी बातें सुनकर भावनाओ में बहकर या गरीबी पर तरस खाकर एक दो रुपये फालतू भी दे दिया करते थे, और वो होती थी नंदू की ऊपरी कमाई…. और अब तो उसकी आदत ही बन गयी थी कि जो थोड़ा अच्छा खासा सवारी होता, उसे वो अपने गरीबी के किस्से जरूर सुनाता था, कई बार सूनाना सफल रहता तो कई बार कुछ कंजूस बस तरस ही खाकर रह जाते, हाथ से उनकी फूटी कौड़ी ना छूटती।

"अच्छा तो तुम अपनी बहनों की शादी करने के लिए दिन रात मेहनत करते हो….वाह! भाई हो तो ऐसा….और तुम सिर्फ एक अच्छे भाई ही नही एक अच्छे बेटे भी हो" बिनोद के चाचा त्रिलोक ने छोटे नंदू से कहा।

इसी तरह की भावनात्मक बातो में यह सफर कट रहा था। और रिक्शा लगातार मंगलम की तरफ को बढ़ रही थी।

नंदू अंकल अपने पुराने दिनों को देखकर बहुत ही इमोशनल हो गए थे, उन्हें बस एक ही बात याद आ रही थी


     """जिंदगी के सफर में गुजर जाते है जो मकाम
      """"वो फिर नही आते
       """""वो फिर नही आते……
सुबह आती है, शाम जाती है
सुबह आती है, शाम जाती है यूँही
वक़्त चलता ही रहता है रुकता नहीं
एक पल में ये आगे निकल जाता है
आदमी ठीक से देख पाता नहीं
और परदे पे मंज़र बदल जाता है
एक बार चले जाते हैं जो दिन-रात सुबह-ओ-शाम
वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते
ज़िन्दगी के सफ़र में  गुजर जाते है जो मकाम
वो फिर नही आते


अब बचपन तो क्या उसकी जिंदगी भी नही लौट पाएगी, बचपन ऐसे संघर्ष में बिताने के बाद बुढ़ापे में हार गया, ना जाने क्यो बुढ़ापे में संघर्ष करने से कतरा गया था नंदू…. आज अपने बचपन के दिन याद करके उसकी तम्मन्ना एक बार और जीने की थी….और मन मे पछतावा था कि क्यो उसने ये कदम उठाया…. खुद ही नही खाया, जिंदगी भर बचाने की कोशिश की थी…., बाकी उसके मरने के बाद लोग तो खा ही रहे है,

रिक्शा मंगलम के पास पहुंची….

"लो बाबूजी! हम पहुंच गए। आ गया मंगलम.……" कहते हुए रिक्शे के ब्रेक को कसते हुए नंदू ने रिक्शे को रोक दिया।

बिनोद ने बहुत ही आदर से कहा- " धन्यवाद मित्र…. अब क्या आप हमें बता सकते हो कि मंडावली के पास दस नम्बर गली कितना दूर है" 

मंडावली 10 नम्बर गली में ही नंदू का घर भी था तो उसने से कहा- "वैसे तो यहाँ से पैदल पंद्रह से बीस मिनट लगेंगे, लेकिन आप चाहो तो मैं आपको बस दो रुपये में छोड़ दूँगा,  और पैदल जाने में आप रास्ता भी भटक जाएंगे,मैं आपको जिसके घर बोलोगे उसके घर पहुंचा दूँगा….दस नम्बर गली में तो सबको जानता  हूँ मैं"

ये बात सुनकर वो तीनो मान गए, अब इतना दूर आये है तो थोड़ी और रिक्शे से ही चले जायेंगे, ये उनके विचार थे।

वो लोग वापस बैठ गए, और नंदू ने फिर से रिक्शे को धक्का लगाया और गलियों की तरफ ले जाने लगा।

"अच्छा ये तो बताओ किसके घर जाना है आपने, किसके मेहमान हो आप…." नंदू  ने सवाल किया जो उनसे घुल मिल गया था,

"चिंतामणि की बिटिया से मेरे लड़के बिनोद की शादी की बात चली थी कुछ साल पहले….तब मेरा बेटा स्नातक कर रहा था। अब उसकी पढ़ाई पूरी हो गयी, और शादी की उम्र भी….तो सोचा एक बार देख आते है….अगर पसंद आ गयी तो शादी भी कर देंगे"  गोविंद ने कहा।

ये सुनकर नंदू के पैरो तले जमीन ही खिसक गई, मतलब जिनसे वो गप्पे लड़ाते आ रहा था, अपनी गरीबी का ढिंढोरा पिट रहा था वो कोई और नही, उसकी बड़ी बहन सरला को देखने वाले थे।

नंदू बहुत शर्मशार हो गया। उसे बिल्कुल भी अनुमान नही था कि आज सरला को देखने लड़के वाले आएंगे, उसे क्या उसके घर मे भी किसी को पता नही होगा, पता नही सरला ने कैसे कपड़े पहने होंगे, घर मे तो फटे पुराने से गुजारा हो जाता था। चारपाई में नई चादर भी नही बिछाई होगी, पापा भी काम पर चले गए होंगे.…. पता नही घर की हालत कैसी बनाई होगी। बहुत सारी टेंशन नंदू को कचोट रही थी। नंदू लगातार अपने घर की तरफ बढ़ रहा था, उसकी दिल की धड़कन भी बढ़ रही थी।  

नंन्दू अब प्लानिंग करने लगा, उसने सोचा इनको उस गली से थोड़ा बाहर रोककर रिक्शे में बैठे रहने की सलाह देगा, और दो मिनट में आता हूँ बोलकर घर चला जाऊंगा,सबको ये खबर देकर, सरला को नए कपडे पहनने को कहूँगा और तब तक माँ चारपाई ठीक कर देगी, झाड़ू वगेरा तो लगा ही दिया होगा,

नंदू अपनी गली के पहले मोड़ पर ही रुक गया।

"बाबूजी! आप दो मिनट यहाँ रहिये में अपने एक मित्र से पैसे लेकर आता हूँ, मेरे से उधार मांगे थे, आज लौटाऊंगा बोल रहा था" नंदू ने कहा।

"अरे! बेटा…. ज्यादा टाइम मत लगाना, जल्दी जाओ और जल्दी आ जाना" गोविंद ने कहा।

नंदू अभी जिस रास्ते से दौड़कर गया, वो उनके घर की मेन गली नही थी, नंदू जानबूझकर दूसरी गली से गया ताकि उन्हें बाद में ये ना लगे कि अगर पैसे मांगने इसी गली में जाना था तो रिक्शा अंदर क्यो नही ले गया।

नंन्दू ने प्लान के मुताबित घर मे सबको सचेत कर दिया, और सरला को भी नए कपड़े पहनने को कहा, और तुलसी को भागकर जाकर पापा को काम पर से घर बुलाकर लाने को कहा।

"बेटा चीनी भी थोड़ी सी है, बिस्कुट वगेरा कुछ ले आना…." कौशल्या ने कहा। और बक्शे से जल्दी जल्दी में नई चादर निकाली और उसी पुरानी चादर के ऊपर ही बिछा दी।

"बिस्किट चीनी में बाद में लाऊँगा,पहले उन्हें घरपर लाना होगा, दो मिनट बोलकर आया हूँ" नंदू ने कहा।

"चल तू जा.….अगर देर हो गयी तो नाराज हो जाएंगे….और हां सामान भी याद से लाना है" कौशल्या ने नंदू से कहा।

नंदू भागकर वापस गया।

"अरे भाई……मिल गए पैसे! "बिनोद ने पूछा।

बिनोद अकेले बैठा था, रिक्शे में, गोविंद और त्रिलोक नजर नही आ रहे थे

"आप अकेले…बाकी लोग कहाँ है?"

"बाबूजी और चाचाजी कुछ मिठाई और फल लेने गए है, अभी आते ही होंगे….पहली बार आये है मेहमान बनकर, क्या बोलेंगे वो लोग….खाली हाथ आ गए" बिनोद ने कहा।

"अरे कोई कुछ नही बोलता, बड़े अच्छे लोग है वो….ऐसा कुछ नही बोलते" नंदू ने कहा।

"मुंह के सामने कोई कुछ नही बोलता, लेकिन मन मे सोचते जरूर है।" बिनोद ने कहा।

तभी बिनोद को ना जाने क्या सुझा उसने नंदू को अपने बगल में बैठने को कहा- "ए भाई सुनो….इधर बैठो….एक बात पूछनी थी आपसे"

"हां पूछो ना, एक नही दस पूछो" नंदू बोला।

"इधर तो बैठो, नीचे क्यो खड़े हो" बिनोद ने फिर से अपने बगल पर रिक्शे की गद्दी पर हाथ रखते हुए कहा।

नंदू रिक्शे में चढ़ गया, और बिनोद के बगल में जा बैठा।

"आप तो इस गली में सबको जानते हो ना?"  बिनोद ने कहा।

"हर किसी को वो भी बहुत अच्छी तरह से" नंदू ने पूरे आत्मविश्वास से कहा।

"ये चिंतामणि जी की लड़की को जानते हो क्या बड़ी वाली लड़की" बिनोद ने सवाल किया।

नंदू अब फंस से गया था, क्या बोलू हो गयी थी उसे। अब अचानक बताए भी तो कैसे की मैं चिंतामणि का ही बेटा हूँ,

नंदू को चुप देखकर बिनोद ने फिर सवाल किया- "क्या हुआ, ठीक नही है क्या….मेरा मतलब उसकी आदतें और व्यवहार कैसा है, माँ बाबूजी का आदर करती है उनकी बातें मानती है या फिर अपनी मनमानियां करती है"

"लड़की संस्कारी है, बिना घर मे पूछे घर से बाहर कदम भी नही रखती, आज्ञा का पालन करती है, और रही बात उसके स्वभाव की तो शांत स्वभाव की है, उसकी कुछ कमियां है की वो गलत सहन नही कर पाती, उसे गुस्सा जल्दी आ जाता है, लेकिन वो गुस्सा किसी को दिखाती नही है। अकेले में रो रोकर खुद पर ही गुस्सा निकाल लेती है, अपनी छोटी बहन से बहुत झगड़ती है लेकिन उससे बहुत प्यार भी करती है,घर का खाना सारा बना लेती है" नंदू ने कहा।

"अच्छा सबकुछ जानते हो उसके बारे में" बिनोद ने कहा।

अब नंदू ने हीम्मत करके सब सच बताना जरूरी समझा, क्योकि अभी बता दिया तो फिर भी ठीक है, अगर घर के अंदर जाकर बताया तो मुझे बोलेंगे बताया क्यो नही।

"हाँ, अपनी बहन के बारे में पता नही होगा तो किसके बारे में पता होगा….मैं उसी का भाई हूँ, चिंतामणि मेरे बाबूजी का नाम है"  नंदू ने कहा।

ये बात सुनकर बिनोद को एक झटका लगा…. अचानक उसकी बोलती बंद हो गयी। उसके मन मे और भी बहुत सारे सवाल थे, जो किसी पड़ोसी से पूछ सकता था। और नंदू को पड़ोसी समझकर ही पूछ रहा था। लेकिन अब उन सारे सवालों को उसने ना पूछने का इरादा कर लिया। क्योकी जिसके घर वो रिश्ता लेकर जा रहा था वो रिक्शेवाला नंदू की बहन ही थी, उस रिक्शेवाले की बहन जो जैसे तैसे दो वक्त की रोटी जोड़ रहा था। और बहनों की शादी करने की जिम्मेदारी भी उसके ऊपर थी। 
   एक तरह का अजीब सवाल बिनोद ने खुद से किया- "एक कम पढ़ा लिखा लड़का, जो उम्र में भी छोटा है, वो अपने परिवार को पाल रहा है, और अपनी बहनो की शादी की जिम्मेदारी भी खुद उठा रहा है, और एक मैं हूँ कि पढ़ाई लिखाई करके भी अपनी शादी का खर्चा बाबूजी के ऊपर यह कहकर थोप रहा हूँ कि आपकी जिम्मेदारी है मेरी शादी करना….आपका फर्ज है। आपके बाबूजी ने आपकी शादी की और आप मेरी,मैं अपने बच्चों की करूँगा, यही रीत है। जबकि यह गलत साबित कर दिया आज मेरे होने वाले साले ने।

बिनोद ने ठान लिया था अपनी शादी का खर्चा खुद उठाऊंगा,  और बाबूजी की जिम्मेदारी भी बाटूंगा। एक अच्छी सिख के साथ ससुराल के पहले दर्शन होने वाले थे आज।

"बाबूजी भी ना! इतनी देर लगा दी फल लाने में" बिनोद ने बात बदलते हुए कहा,

"कोई बात नही, चलो मैं आपको घर छोड़ देता हूँ, उनको लेने फिरु आ जाऊंगा" नंदू ने कहा।

"लेकिन अगर हमारे जाते ही वो आ गए तो हमे ढूंढते रह जाएंगे, रास्ता भटक गए तो मुश्किल हो जाएगी।" बिनोद ने कहा।

"मैं रिक्शा यही छोड़ देता हूँ, हम पैदल ही चल पड़ते है, एक मिनट भी नही लगेगा" नंदू ने कहा।

बिनोद ने उसकी बात मान ली और रिक्शे से उतर गया, नंदू ने बैग उठाया और दोनो पैदल घर की तरफ निकल पड़े।

कहानी जारी है


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5 Comments

बेहतरीन... शैली..बस छूट पुट गलतियां है

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🤫

02-Sep-2021 10:01 PM

बेहतरीन...रचना। संतोष जी...😊

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Miss Lipsa

02-Sep-2021 09:41 PM

Nice

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